बजरंग दल के बालोद जिला संयोजक उमेश कुमार सेन ने बताया दिसंबर माह क्यों खास है!

दिसंबर : चार सहजादो के बलिदान की गाथा

बालोद। बजरंग दल के बालोद जिला संयोजक उमेश कुमार सेन ने बजरंग दल की ओर से सिख समुदाय के बलिदानों को हम शत-शत नमन किया साथ ही उन्होंने बताया कि दिसंबर माह क्यों खास है। उन्होंने कहा कि

हम सब जानते हैं कि त्याग और बलिदान का सिख गुरु परंपरा का इतिहास रहा है।

दुनिया के इतिहास में सिख गुरुओं की कुर्बानी का कोई सानी नहीं है।

साहस, त्याग और बलिदान का सबसे बड़ा उदाहरण कायम करते हुए एक पिता ने अपने धर्म और मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने दो अनमोल पुत्र रत्नों को हँसते-हँसते दीवार में चुनवा दिया ! ऐसे वीर महापुरुष का नाम था, श्री गुरु गोविन्द सिंह जी !

सिख समुदाय के दसवें धर्म-गुरु (सतगुरु) गोविंद सिंह जी का जन्म पौष शुदि सप्तमी संवत 1723 (22 दिसंबर, 1666) को हुआ था । उनका जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ था।

22 दिसंबर सन् 1704 को सिरसा नदी के किनारे चमकौर नामक जगह पर सिक्खों और मुग़लों के बीच एक ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया जो इतिहास में “चमकौर का युद्ध” नाम से प्रसिद्ध है।

इस युद्ध में सिक्खों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी के नेतृत्व में 40 सिक्खों का सामना वजीर खान के नेतृत्व वाले 10 लाख मुग़ल सैनिकों से हुआ था। यह संसार की अदभुत जंग थी। यह युद्ध इतिहास में सिक्खों की वीरता और उनकी अपने धर्म के प्रति आस्था के लिए जाना जाता है । गुरु गोविंद सिंह ने इस युद्ध का वर्णन “जफरनामा” में करते हुए लिखा है-” चिड़ियों से मै बाज लडाऊ गीदड़ों को मैं शेर बनाऊ ,सवा लाख से एक लडाऊ तभी गोबिंद सिंह नाम कहउँ। यह वीर गाथा उन सुकुमारों की है जिनकी शहादत के समय (5 वर्ष और 7 वर्ष) अभी दूध के दाँत भी नहीं गिरे थे। जिनके लिए सरदार पांछी ने कहा है-“यह गर्दन कट तो सकती है मगर झुक नहीं सकती।कभी चमकौर बोलेगा कभी सरहिन्द की दीवार बोलेगी। चमकौर के इस भयानक युद्ध में गुरुजी के दो बड़े साहिबजादों ने शहादतें प्राप्त कीं। साहिबजादा अजीत सिंह को 17 वर्ष एवं साहिबजादा जुझार सिंह को 15 वर्ष की आयु में गुरुजी ने अपने हाथों से शस्त्र सजाकर धर्मयुद्ध भूमि में भेजा था।जहाँ गुरु गोविंद सिंह जी के दोनों बड़े साहिबजादों अजीत सिंह तथा जुझार सिंह ने अपने धर्म की आन, बान और शान के लिए शाहदत प्राप्त की थी। 37 सिखों व गुरुजी और उनके दो बड़े साहिबजादों ने मोर्चा संभाला था । बड़े साहिबजादे भी लड़ाई में गुरु जी की आज्ञा लेकर शामिल हुए व 17 और 15 साल की छोटी उम्र में ही युद्ध में जोहर दिखा कर शहीद हो गए।राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त लिखा था। जिस कुल जाति कौम के बच्चे यूं करते हैं बलिदान।उस का वर्तमान कुछ भी हो परन्तु भविष्य है महान।

सरसा नदी पर बिछुड़े माता गुजरीजी एवं छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह जी 7 वर्ष एवं साहिबजादा फतेह सिंह जी 5 वर्ष की आयु में गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें सरहंद के नवाब वजीर खाँ के सामने पेश कर माताजी के साथ ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया गया और फिर कई दिन तक नवाब और काजी उन्हें दरबार में बुलाकर धर्म परिवर्तन के लिए कई प्रकार के लालच एवं धमकियाँ देते रहे। दोनों साहिबजादे गरज कर जवाब देते, ‘ हम अकाल पुर्ख (परमात्मा) और अपने गुरु पिताजी के आगे ही सिर झुकाते हैं, किसी ओर को सलाम नहीं करते। हमारी लड़ाई अन्याय, अधर्म एवं जुल्म के खिलाफ है। हम तुम्हारे इस जुल्म के खिलाफ प्राण दे देंगे लेकिन झुकेंगे नहीं। उन्होंने जवाब दिया था धरम न तजहें कभी तुर्क न बने हैं।शीश निज देहे जैसे बड़ों ने दिये हैं।।अत: वजीर खाँ ने उन्हें जिंदा दीवारों में चिनवा दिया। साहिबजादों की शहीदी के पश्चात बड़े धैर्य के साथ ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हुए माता गुजरीजी ने अरदास की एवं अपने प्राण त्याग दिए। तारीख 26 दिसंबर, पौष के माह में संवत् 1761 को गुरुजी के प्रेमी सिखों द्वारा माता गुजरीजी तथा दोनों छोटे साहिबजादों का सत्कारसहित अंतिम संस्कार कर दिया गया।छोटे भाई फतेह सिंघ ने गुरूवाणी की पँक्ति कहकर दो वर्ष बड़े भाई को साँत्वना दी थी चिंता ताकि कीजिए, जो अनहोनी होइ ।इह मारगि सँसार में, नानक थिर नहि कोइ ।जब गुरु गोविंद सिंह जी को यह खबर मिली तब आप के मुख से यह निकला :इन पुत्रन के शीश पर ,वार दिये सुत चार चार मुए तो क्या भया ,जीवत कई हजार। हमारा देश कुर्बानियों और शहादत के लिए जाना जाता है और यहां तक के हमारे गुरूओं ने भी देश कौम के लिए अपनी जानें न्यौछावर की हैं। यह कहानियां सिक्खों के बहादुरी के जौहर के हैं जो कौम और देश का निशान बनकर नाम रोशन करता रहेगा। मानवता के इतिहास में साहिबजादों की शहादत बेमिसाल है और रहेगी। गुरु गोबिंद जी केवल 42 वर्ष जिए लेकिन इतनी छोटी उम्र में ही उन्होंने जातपात व ऊंच नीच का भेद मिटाया। तभी तो उन्होंने हर जाति वर्ग से चुनकर पांच प्यारे बनाए। उनकी सबसे बड़ी देन खालसा पंथ बनाना था। खालसा पंथ ने जहां जुल्मों के खिलाफ लोहा लिया वहीं हिंदुस्ता की आजादी के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानियां दी। धन्य हैं गुरु गोबिंद सिंह जी जिन्होंने धर्म, कौम, जाति व समाज के लिए इतने उपकार किए व सारी आयु आप ने दुखों, तकलीफों में गुजार दी। उन्होंने अपना सारा परिवार देश व धर्म पर कुर्बान कर दिया।उन्होंने मां दुर्गा के सामने गौमाता की रक्षा के लिए प्रतिज्ञा की थी-‘‘यदि देहु आज्ञा तुर्क गाहै खपाऊं,गऊ घात का दोष जग सिउ मिटाऊं।’

हर साल दिसंबर 25 से 27 दिसंबर तक बहुत भारी जोड़ मेला इस स्थान पर (फतेहगढ़ साहिब) लगता है जिसमें 15 लाख श्रद्धालु पहुंच कर साहिबजादों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। 6 व 8 साल के साहिबजादे बाबा फतेह सिंह और जोरावर सिंह जी दुनिया को बेमिसाल शहीदी पैगाम दे गए। वे दुनिया में अमर हो गए।सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत।पुर्जा-पुर्जा कर मरे, कबहू ना छोड़े खेत।सवीर की पहचान है कि वह “दीन”(कमजोर) का रक्षक है टुकड़े-टुकड़े होने पर भी वह कायरता नहीं दिखाता ! अर्थात अपने सिद्धांतों पर अडिग रहता है। भारत सदैव उनका ऋणि रहेगा।यह बहादुर कौम देश की सुरक्षा में हमेशा आगे रही। पूरे भारत की आबादी का केवल 2% होने के बावजूद भी देश की सेना में 10% योगदान इन्हीं का है।मुगलों के जमाने से लेकर स्वतंत्रता संग्राम, विश्व युद्धों से लेकर चीन और भारत-पाकिस्तान युद्धों में सिखों की बहादुरी को आज भी हम नहीं भूले हैं

You cannot copy content of this page