छत्तीसगढ़ के प्रमुख त्योहारों में से एक है पोला, इसे संरक्षण की जरूरत, द्वापर युग से जुड़ी है इसकी शुरुआत
बालोद। छत्तीसगढ़ के प्रमुख त्योहारों में से एक पोला पर्व है। आधुनिकता के इस दौर में हरेली की तरह पोला पर्व की संस्कृति को छत्तीसगढ़ में बचाने की जरूरत है। आज खेती किसानी में बैलों का महत्व कम होता जा रहा है। आधुनिकीकरण से लोग मशीनों की ओर आकर्षित हो रहे हैं तो अपने पुराने कृषि साथियों को किसान भी छोड़ रहे हैं। ऐसे में पोला पर्व पर एक दिन के लिए पशुधन की पूजा अर्चना करने वाले किसानों सहित आज की युवा पीढ़ी को भी छत्तीसगढ़ की इस विशेष संस्कृति को बचाने की जरूरत है.
उक्त बातें ग्राम पोंडी (बालोद) निवासी पण्डित दानेश्वर प्रसाद मिश्रा ने कही। उन्होंने कहा कि पोला पर्व भादो माह की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है। किसानों के लिए यह पर्व विशेष महत्व रखता है। वे इस दिन बैलों का साज सज्जा कर पूजा अर्चना कर सुख-शांति की कामना करते हैं। जहां घरों में बैलों की पूजा होती है, वहीं लोग पकवानों का लुत्फ भी उठाते हैं। इसके साथ ही इस दिन ‘बैल दौड़ प्रतियोगिता’ का आयोजन किया जाता है। पोला पर्व पर शहर से लेकर गांव तक धूम रहती है। इस दौरान जगह-जगह बैलों की पूजा-अर्चना की होती है। गांव के किसान भाई सुबह से ही बैलों को नहला-धुला कर सजाते हैं, फिर हर घर में उनकी विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती है। इसके बाद घरों में बने पकवान भी बैलों को खिलाए जाते हैं। इस दिन मिट्टी और लकड़ी से बने बैल चलाने की भी परंपरा है। पर्व के दो-तीन दिन पूर्व से ही बाजारों में लकड़ी तथा मिट्टी के बैल जोड़ियों में बिकते दिखाई देते हैं।
कृष्ण ने मारा था पोलासुर को, तब से हुई शुरुआत
द्वापर युग की कथा के अनुसार विष्णु भगवान जब कान्हा के रूप में धरती में आए थे, तब जन्म से ही उनके कंस मामा उनकी जान के दुश्मन बने हुए थे। कान्हा जब छोटे थे और वासुदेव-यशोदा के यहां रहते थे, तब कंस ने कई बार कई असुरों को उन्हें मारने भेजा था। एक बार कंस ने पोलासुर नामक असुर को भेजा था, इसे भी कृष्ण ने अपनी लीला के चलते मार दिया था, और सबको अचंभित कर दिया था। वह दिन भादों माह की अमावस्या का दिन था, इस दिन से इसे पोला कहा जाने लगा।