संघर्ष का परिणाम ही सफलता है- कभी खुद 30 किमी दूर दलदल पार जाते थे स्कूल में पढ़ने, अब खुद वनांचल में शिक्षा का अलख जगा रहे दयालुराम, मिलेगा शिक्षक दिवस पर राज्यपाल पुरस्कार
बालोद/डौंडीलोहारा- शासकीय पूर्व माध्यमिक शाला मड़ियाकटटा के प्रधान पाठक दयालूराम पिकेश्वर शिक्षक दिवस के अवसर पर राज भवन के दरबार हाल में राज्यपाल पुरस्कार से सम्मानित होगें. यह पुरस्कार उन्हें आदिवासी वनांचल क्षेत्र में बच्चों के शिक्षा समाज में बेहत्तर काम करने लिए दिया जा रहा है इसके पहले उन्हें मुख्यमंत्री शिक्षा गौरव अंलकरण के अंतर्गत संभागीय शिक्षा गौरव अंलकरण श्रेष्ठ प्रधान पाठक पुरस्कार, ज्ञानदीप पुरस्कार, स्वच्छता पुरस्कार सहित शासन से कई अन्य सम्मान सामाजिक संगठन अन्य संस्थाओं से मिल चूका है। संकुल केन्द्र खोलझर के शासकीय पूर्व माध्यमिक शाला मड़ियाकटटा के प्रधान पाठक दयालूराम पिकेश्वर के सफलता के पीछे उनके संघर्ष की कहानी भी छिपी है.
. इस शिक्षक दिवस पर उन्होंने अपनी कहानी से दूसरों को प्रेरित करने की कोशिश की है. उन्होंने बताया उनका जन्म आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र आदिवासी समाज आदिवासी बाहुल्य ग्राम घनघोर वनांचल गांव भंवरमरा के आश्रित पारा नेतामटोला में स्व.घनाराम पिकेश्वर स्व.बरमती बाई माता पिता के कोख से 24 जनवरी 1964 को हुआ. वे गांव के स्कूल में कक्षा एक से आठवीं तक पढ़ाई चिमनी, कंडिल आग की रोशनी में करते थे. बारिश के दिनों में दलदल, कीचड़, जंगल, पगडंडी पार कर दो किलोमीटर दूर पैदल जाते थे. नदी के उस पार 52 गांव आते हैं एक भी हाई हायरसेकण्डरी स्कूल नहीं होने कारण आगे की पढ़ाई नहीं कर सकते थे। अधिकतर बच्चे पांचवीं आठवीं कक्षा या बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते थे। पर उन्होंने हिम्मत नही हारी, आठवीं कक्षा के बाद नवमीं पढ़ने के लिए अपने पिता के साथ 30 से 35 किलोमीटर पैदल चलकर तो 1980 में उच्चतर माध्यमिक शाला बड़गांव में ग्यारहवीं कक्षा छात्रावास में ही रहकर पढ़ाई किए. दसवीं कक्षा में पढ़ते परीक्षा समय के उनके पिता का आकास्मिक निधन हो गया। दूर पढ़ने की मज़बूरी ऐसी थी कि वे पिता के मिटृटी कार्यक्रम में नहीं जा पाए.
नदी पार कर जाते थे कॉलेज
ग्यारहवीं के बाद कालेज के पढ़ाई के लिए खरखरा नदी को तैर कर हाफ पेंट व साइकिल में शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में प्रवेश लिए। उन्हें दुर्ग जिले वाले छात्रावास में रहने नहीं दिए तो आस पास के छात्र इकटटा कर मिनी छात्रावास बनाकर 20 से 25 छात्र एक साथ रहकर एम.ए.राजनीति विज्ञान 1988 में पूर्ण किए। एम.ए.की पढ़ाई पूरी करने के बाद गांव में रहकर क्या करुगा, करके वे शासकीय किशोरीलाल शुक्ल विधि महाविद्यालय राजनांदगांव में एलएलबी पार्ट 1 में प्रवेश लिया और पढ़ाई करते रहे।
पढ़ाई का खर्च उठाने अर्दली की ड्यूटी भी करते रहे
एलएलबी में रात्रिकालीन पढ़ाई होती थी, दिनभर कोई भी कार्य नहीं होने कारण आगे की पढ़ाई करने स्वयं काम कर करूंगा सोंचकर दुर्ग में नगर सैनिक भर्ती निकलने पर वहां भर्ती हो गए। इस दौरान टीआई साहब क्वाटर में अर्दली ड्यूटी करने लगे। काम करना है तो कोई भी काम छोटा बड़ा नही होता मानकर वहां झाड़ू पोछा काम भी करते थे। दो माह काम करते हुए माह फरवरी 1989 सहायक शिक्षक पद पर नियुक्ति हुई. 3 मार्च 1989 को शासकीय प्राथमिक शाला गंजईडीह में पदभार ग्रहण करने के बाद शिक्षिकीय कार्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को लेकर काफी उत्साहित रहे। आज भी वे बच्चों के सर्वागीण विकास के साथ समाज सेवा, मानव सेवा कर रहे हैं। पिता को समाज व मानव सेवा करते देखे थे। उसी से वे प्रेरित थे। शिक्षक होने कारण परिवार के सभी बच्चों को पढ़ाया और शासकीय सेवा कर रहे है।
दसवी पास लड़की से शादी कर उन्हें पढ़ाया, आज पत्नी व बेटी दोनों शिक्षक
नौकरी लगने के बाद शादी के लिए बहुत सारी नौकरी धारी लड़की के पालकों से प्रस्ताव आया लेकिन नौकरीधारी लड़की से शादी नहीं किए बल्कि दसवीं पास लड़की से शादी कर आगे की पढ़ाई स्वयं कराए। समाज सेवा में लगे रहते थे। आज उनकी पत्नी बसंती पिकेश्वर भी सोरली प्राइमरी स्कूल में सहायक शिक्षक के तौर पर शिक्षकीय कार्य करते हुए समाज सेवा कर रहीं है। अपने आवश्यकता कम कर वेतन को चार भागों विभाजन कर शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार, समाज सेवा- मानव सेवा में खर्च कर रहे हैं। एक पुत्री मधुबाला हैं वह भी देवरी बंगला स्कूल में व्याख्याता है। वे अपने लिए कुछ भी नहीं कर गांव में अभी भी कच्ची मिट्टी की मकान में हैं। साथ ही किराए के मकान में रहते हुए उन्होंने शिक्षा स्वास्थ्य और बच्चों के लिए सबसे अच्छा काम कर रहे हैं।
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