30 मई पत्रकारिता दिवस पर विशेष- लोक से दूर होता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ
(बालोद)
भारतीय पत्रकारिता का आधुनिक इतिहास अंग्रेजों के आगमन पश्चात शुरू होता है. भले ही इसकी शुरुआत किसी अंग्रेज ने किया हो. पर हिंदी पत्रकारिता भी उसी पश्चिमी बंगाल से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन से शुरू होता है .चाहे तिलक का केसरी हो या बाबा साहब का मूक नायक समर्पित भाव से आजादी के आंदोलन में रचनात्मक भूमिका अदा की. किंतु आजादी के बाद की पत्रकारिता शनै: शनै: सरकार और कारपोरेट घरानों की कठपुतली बनकर रह गई इन्हीं बातों को लेकर एक समसामयिक परिचर्चा प्रोफे.के.मुरारी दास के संचालन व दरवेश आनंद के संयोजकत्व में आयोजित किया गया. चर्चा की शुरुआत करते हुए वरिष्ठ लेखक व पत्रकार जनाब अरमान अश्क बालोद ने कहा-आज का चौथा स्तंभ अपने दायित्वों से पूर्णतः भटक चुका है.एक समय होता था जब अखबारों को खरीदने के लिए लाइन लगा करती थी, पर आज ऐसा नहीं. आज अखबार की बातों को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती. उसका कारण आज की मीडिया कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित होती है. जिसने कलम को गुलाम बना कर रख दिया है. देश के 10% लोग अपनी बात 90% लोगों पर मनवाने को मजबूर करती है. ग्रामीण अंचल का समाचार बहुत कम देखने को रह गया है. चाहे समाचार हो या विज्ञापन अधिक से अधिक सरकार और कारपोरेट घरानों का ही आपको देखने मिलेगा. ऐसी स्थिति में अब मीडिया को चौथा स्तंभ कहना बेमानी सा हो गया है. वे आगे कहते हैं ,आज हम सब प्रबुद्ध लोगों को ऐसे विषयों पर चिंतन अवश्य करनी चाहिए कि ,आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि, किसी के इशारे पर अखबार चल रहे हैं आज यदि कोई दमदार तरीके से अपनी बात कहते व लिखते भी हैं तो उसे मीडिया पर समुचित स्थान नहीं दिया जाता. अरमान अश्क आगे यह भी कहते हैं कि, आज भी सुदूर वनांचल और आदिवासी इलाकों में रहकर हमारे जांबाज पत्रकार अपनी जान को जोखिम में डालकर रिपोर्टिंग कर रहे हैं किंतु उन पर भी इन घरानों का दबाव पड़ने से लिखने की स्वतंत्रता पर भी अंकुश दिखाई पड़ता है
जगदलपुर की पत्रकार श्रीमती करमजीत कौर परिचर्चा को आगे बढ़ाते कहती हैं- अखबार और दूरदर्शन का क्रेज शुरुआती दौर में खूब रहा. कोरोना जैसे कुछ क्षणों को छोड़ दिया जाए तो भी अखबार का क्रेज आज भी यथावत बना हुआ है.यह अलग बात है की आज इसके वितरण में कमी आई है फिर भी अखबार की विश्वसनीयता टीवी से कहीं अधिक अच्छी है आपके पास जो शब्द शैली है वह अखबार से ज्यादा होते हैं. श्रीमती कौर कहती हैं -जब हम जागरूक नहीं थे तब ऐसा लगता था की मीडिया की विश्वसनीयता थी किंतु धीरे धीरे हमारी समझ विकसित होने लगी तब हमें ज्ञान होने लगा की मीडिया में आज जो कुछ भी लिखा या दिखाया जा रहा है उसमें कहीं ना कहीं कारपोरेट का दबाव है या कोई अन्य शक्ति भी काम कर रही है. वे कहती हैं- मीडिया समाज का आईना होता है इसलिए समाज की सही तस्वीर सामने नहीं आ रही है अर्थात् एक अदृश्य शक्ति जो कहना या लिखना चाहते हैं हम चाह कर भी सच का सामना नहीं कर पा रहे हैं श्रीमती कौर आगे कहती हैं- कलम और शब्द आपके हैं पर भाव किसी और के होते हैं चाहे जैसा भी हो लोकतंत्र को बचाना है तो पुराने युग की ओर लौटना ही होगा
राष्ट्रीय हिन्दी मासिक लोक असर के संपादक दरवेश आनंद कहते हैं आज की पत्रकारिता संपन्न घरानों के हाथों में कैद होने से पत्रकारिता कम और व्यवसायिक ज्यादा नजर आने लगी है ऐसी स्थिति में देश की मीडिया संस्थान देश के विकास में साधक कम और बाधक ज्यादा साबित हुए है ,जो विकासशील देश के लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं
अतीत की पत्रकारिता देश के लिए समर्पित हुआ करती थी वो आवाम के हर दुख-दर्द को हरण करने वाली होती थी. फिर चाहे वह इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट. कभी देश के अग्र पंक्ति में रहने वाली मीडिया आज पूंजीपतियों के हाथों कठपुतली की तरह नाचने लगी है. जिसकी वजह से आज पीत पत्रकारिता का घिनौना चेहरा समाज के सामने आने लगा है. वर्तमान समय में जिसके पास मुंह बोले सुरक्षा धन जमा करने (अर्थात् अखबार की प्रतियां खरीदने में) सक्षम है वे आज पत्रकार और संवाददाता बने बैठे हैं अर्थात् समाचार पत्र व्यवसाय से उद्योग बनने की ओर अग्रसर जान पड़ते हैं.आज कोई भी मीडिया संस्थान एजेंसी देते समय किसी भी तरह से चरित्र प्रमाण पत्र नहीं मांगता इसलिए जो कि मेरे ख्याल से पत्रकारिता जगत में गलत परंपरा की जननी है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. दूसरे शब्दों में यदि कहें की जो संस्था खुद बेईमान हो वह क्या किसी भ्रष्टाचार को उजागर करने से रोक सकता है उनका पूरा का पूरा फोकस इस बात पर केंद्रित रहता है कि उसे कहां से व कितना धन मिलने की संभावना है. कुल मिलाकर आज की पत्रकारिता ब्लैक मेलिंग में तब्दील हो चुकी है. श्री दरवेश कहते हैं कि, 7 दशक पूर्व की पत्रकारिता इतनी दूषित नहीं थी जितना कि पिछले सात-आठ वर्षों में हमें देखने को मिला है. हमें कहने में गुरेज नहीं कि, लोकतंत्र को नेस्तनाबूद करने में भारतीय मीडिया उतारू हो गई है .मीडिया अर्थात् सत्ता सरकार के हाथों की कठपुतली बन गई है सिर्फ सत्ता की गुलाम होकर रह गई है ज्वलंत मुद्दों समस्याओं को पटाक्षेप करने के बजाए हवाओं का ध्यान मुद्दों से भटकाने के अलावा कुछ नहीं कर रही है .जिसे देश का आईना दिखाने वाला स्तंभ माना गया वह अब न केवल पूर्णतः दरक चुका है, अपितु वह पिलर ही डगमगाने भी लगा है. ऐसे वक्त में देश में बुद्धिजीवियों को मुखर होने की जरूरत है आंदोलन करने की जरूरत है. ताकि झूठ को बेनकाब किया जा सके. लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए संविधान का जिंदा रहना भी लाजिमी है ऐसे में संविधान प्रदत्त अधिकारों के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आगे आने की जरूरत है, यदि ऐसा होता है या किया जा सकता है तो संभव है भारतीय मीडिया अपनी मुख्यधारा में स्थापित हो सकती है. परिचर्चा का संचालन करते हुए प्रोफे. के. मुरारी दास ने कहा- इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया का जन अपेक्षाओं के प्रति उदासीन होने की वजह है से ही आज सोशल मीडिया जैसे प्रचार माध्यम का उदय होता है. गुजराती कवित्री पारुल कक्कर, कोलकाता के रेलवे स्टेशन पर भीख मांगने वाली और आज की बॉलीवुड सिंगर रानू मंडल, मैथिली ठाकुर, नेहा सिंह राठौर और पत्रकार प्रज्ञा मिश्र जैसी प्रतिभाएं किसी इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट मीडिया की नहीं अपितु इसी सोशल मीडिया की ही उपज है जिसने न सिर्फ सरकार समाज व देश दुनिया के घोटालों और भ्रष्टाचारियों को समाज के सामने नंगा किया अपितु सच से रूबरू भी करवाया तथा प्रतिभाओं को सामने भी लाया इससे सरकार व समाज की जो किरकिरी होई है इसलिए इसे छिपाने के लिए सरकार सोशल मीडिया पर भी प्रतिबंध लगाने की कानून लाने सोच रही है .
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