छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे भारत देश के मध्य प्रांत की धरा विरासत, रियासत, सियासत की रही है। मुगलों से लेकर ब्रिटिश शासन काल तक इस वीरता की धरा ने विदेशियों को खदेड़ते हुए, ईट का जवाब पत्थर से देने में कामयाब हुआ हैं। इतिहास सदैव वर्तमान का बाप होता है जब अपना खुद का पता ना हो तो बाप की ओर जाना पड़ता है। 36″गढ़ किल्लों से बना छत्तीसगढ़ भी स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अहम भूमिका रखता है। इस “धान के कटोरा” कहे जाने वाले भू- भाग पर छत्तीसगढ़ के पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार गोंड का जन्म 1795 में सोनाखान (बलौदाबाजार)के एक जमींदार परिवार में हुआ था।# पिता का नाम रामराय और माता सिंगारानी थी। सोनाखान रियासत जो आज छत्तीसगढ़ में स्थित है जो गोंडवाना के 52 गढ़ों में एक लाफ़ागढ़ के अंतर्गत आती थी । रतनपुर और सोनाखान मंडला गोंड राजाओं के महत्वपूर्ण गढ़ थे । सोनाखान का प्राचीन नाम सिंधगढ़ जो अपनी समृद्धि और वैभव संपदा के लिए काफी मशहूर था ।
महाराज संग्राम शाह के ही संबंधी विरसैया ठाकुर वहां के राजा थे जो कल्चुरियों को हराकर गोंडवाना की सत्ता स्थापित किए थे । विरसैया के बेटे रामराय और रामराय के बेटे वीर नारायण सिंह थे।
सन 1818 में जब भोंसले शासकों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच संधि हुई तो अंग्रेजों ने राजा रामराय से कर वसूलना चाहा जो उस रियासत की परंपरा के अनुरूप नहीं था क्योंकि गोंड शासको ने कभी किसी को कर नहीं दिया था। सन 1819 में सोना खान की जमींदार रामराय अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए और अंग्रेजों के लिए मुसीबत बन पड़ा। किंतु वृद्धावस्था और कमजोर सैनिक बल के कारण लंबे समय तक मुकाबला नहीं कर सके। अंग्रेजों से पराजय हुई जमीन और बड़ी संपत्ति छीन लिए गए।
अंग्रेज कैप्टन मैक्सन से कोईतूर जमींदार रामराय यह शर्त भी स्वीकार कर लिया था कि आज के बाद अंग्रेजों से विद्रोह नहीं करेंगे । पिता रामराय की मृत्यु के पश्चात सोनाखान रियासत की जिम्मेदारी बेटे वीर नारायण सिंह को मिली । सन 1830 में 35 वर्ष की आयु में उन्होंने सोनाखान की जमींदारी की बागडोर संभाली। एक कुशल सुशासक प्रजा हितकारी होने के कारण जल्द ही अपने क्षेत्रों में बहुत प्रसिद्ध हो गए थे । उनके दिल में अंग्रेजों के प्रति काफी नफरत पैदा हो गई थी क्योंकि उसने अपने पिता को मजबूरी में पराजय स्वीकारते देखा था।
वे बचपन से ही खेलकूद तीरंदाजी, तलवारबाजी, बंदूक ,घुड़सवारी और तैराकी में रुचि रखते थे। न्यायप्रिय ,कर्मठ वीरनारायण सिंह छोटे से छोटे कृषक ,मजदूर वर्ग के सुख-दुख में शामिल हो जाते थे । वे क्षेत्र में गरीबों के मसीहा के रूप में जाने जाते थे । 1856 में अकाल पड़ने पर उन्होंने लालची अंग्रेज समर्थक व्यापारी के गोदाम पर अपने सैनिकों के साथ हमला किया और अनाज को सभी जरूरतमंद गरीबों में बांट दिया ।इस बात को लेकर अंग्रेज बहुत क्रोधित हो गए और एक व्यापारी के अनाज लूटने के आरोप में अंग्रेज हुक्मरानों ने उन्हें षडयंत्र पूर्वक गिरफ्तार कर लिया ।अंग्रेज उनसे काफी भयभीत रहते थे। वीरनारायण सिंह को न्यायालय में पेश कर उन्हें फांसी की सजा सुनाया गया। जेल परिसर में उन्हें 6 दिनों तक फांसी पर लटकाए रखा फिर भी अंग्रेजों का जी नहीं भरा तो सातवें दिन 10 दिसंबर 1857 को रायपुर जय स्तंभ चौक में तोप से उड़ा दिया गया।
आज भी उनके वंशज सोनाखान(बलौदाबाजार)में निवास करते हैं। वीरनारायण सिंह के सम्मान में भारत सरकार ने सन 1987 में 60 पैसे का डाक टिकट जारी किया था । उनके नाम से आज शहीद वीरनारायण सिंह अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम रायपुर में है।
एक विचार जो लोगों के जहन में आता है कि, छत्तीसगढ़ का प्रथम शहीद ठाकुर गैंदसिंह या वीर नारायण सिंह ? इस विषय पर जानकारी मिलता है कि परलकोट (बस्तर) की जमींदार गैंदसिंह हल्बा था। परलकोट विद्रोह 1824 में हुआ था और इसका नेतृत्व जमींदार गैंदसिंह ने किया था। इनका विद्रोह अंग्रेज और मराठों की जंगल विरोधी नीतियों से था ब्रिटिश प्रशासक मिस्टर एग्न्यू ने अपने सैन्य बल के साथ 10 फरवरी 1825 को परलकोट को घेर कर गैंदसिंह ठाकुर को बंदी बना लिया और 20 जनवरी 1825 को परलकोट में उन्हें फांसी दे दी गई ,और इसी के साथ परलकोट विद्रोह हमेशा के लिए दमन कर दिया गया । गैंदसिंह के शहीद होने के बाद यह युद्ध पूर्ण रूप से विराम ले चुका था।
लोग देश कैसे आजाद हुआ पढ़ते हैं गुलाम कैसे हुए नहीं पढ़ते ।” गुलाम होने का प्रमुख कारण यह था कि, कुछ राजा ,महाराजा, जमींदार अंग्रेजों के पक्षधर थे या तो वे गुलाम हो गए थे। तो वही वतन प्रेमी ,देशभक्त राजा ,जमींदार अंग्रेजों की बम – बारूद, बंदूक ,तोप से लड़ रहे थे । यही वजह रही कि देश को आजाद होने में 200 वर्ष लग गए। छत्तीसगढ़ प्रांत में राजनीतिक चेतना प्रारंभ करने का श्रेय जनजातियों को जाता है जनजाति नायकों ने ही अपनी कुशल नेतृत्व से छत्तीसगढ़ के लोगों को क्रांति के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मध्य भारत के आदिवासियों ने देश की आजादी में अपना सर्वस्व योगदान दिया ।
—————–#—————-