बालोद। सहजानंदी चातुर्मास में प्रवचन श्रृंखला के अन्तर्गत महावीर भवन में विराजित परम पूज्य ऋषभसागरजी ने बताया कि हमारे जीवन में हम देखते हैं कि हमारे पास सब कुछ है फिर भी ऐसा महसूस होता है कि कुछ नहीं है। सब होने पर भी दुखी जीवन जीते हैं। शिकायत वाला जीवन जीते हैं। हर व्यक्ति के अंदर कुछ ना कुछ उलझन, दिक्कत चल रही है। हम हम एक दूसरे को समझ नहीं पा रहे हैं। इसलिए आनंद से जी नहीं पा रहे हैं। हमें यह सोचना चाहिए अगर कोई जैसा भी व्यवहार कर रहा है तो वह क्यों ऐसा कर रहा है। किसी भी तरह का व्यवहार का कारण उसके भीतर के विचार और अनुभव है और यह अनुभव, घटना से आते हैं। जब भी हम किसी घटना से जुड़ते हैं तो हम सुखी या दुखी होते हैं और जब हम सुखी होते हैं हमारे भीतर एक धारणा बैठ जाती है कि यही सुख है और किसी से दुख मिले तो पता चलता है कि उससे दुख है। जब-जब वह स्थिति सामने आती है तो वह दिमाग में बैठ जाता है। बच्चा आसपास की घटनाओं से प्रतिक्रिया ग्रहण करता है। इस तरह से उसकी धारणा और अनुभव बढ़ते हैं और चाह कर भी वह अपने व्यवहार को बदल नहीं पाते क्योंकि उसकी धारणा उसके व्यवहार को बदलने नहीं देती। आपके आसपास तो ऐसे भी होंगे जिनमें कई लोगों को तो झूठ बोलना भी अच्छा लगता है और उसे अपने व्यवहार में मिला लेते हैं। उससे उन्हें सुख मिलते हैं।उन्होंने कहा आप अपनी सोच बदले अपने आप आपका व्यवहार बदल जाएगा। धारणा बदलने से व्यवहार बदलता है। जैसे एक लड़की का शादी के बाद व्यवहार बदलता है। एक बार जो चीज घर कर जाती है उसे बदलना मुश्किल तो होता है ।
जैसे-जैसे हमारे भीतर मान्यताएं बैठते जाती है हम वैसा व्यवहार करते हैं। पर हम सामने वाले का व्यवहार बदलने की कोशिश करते हैं। लेकिन उसकी धारणा बदलना जरूरी है। उन्होंने कई बेहतर उदाहरण के जरिए धारणा और व्यवहार के बारे में बताया। एक उदाहरण में उन्होंने कहा कि लोग सोचते हैं कि कोई बीमार हो तो उसका ज्यादा ध्यान रखा जाता है। स्वस्थ हो तो ध्यान नहीं रखा जाता। यह भी एक गलत धारणा लोगों के बीच है। ऐसे में फिर बार-बार बीमार भी पड़ते हैं। लोग दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए काम करते हैं। दूसरों का अटेंशन पाने से लोगों को खुशी मिलती है ।यह चीज जब इतनी ज्यादा बढ़ जाती है तो आप बदलना भी चाहे तो नहीं बदल पाते। हम आचरण को बदलने की कोशिश करते हैं लेकिन जो चीज मान्यता में आ जाती है तो वह बदल नहीं पाती। हमारी सोच हमारी आस्था ही हमें प्रेरित करती है कि दूसरे हमारे प्रति कैसा व्यवहार करें। हमारे अंदर जो भावना होती है उसी की तरह हमें परिस्थितियां मिलती है। लेकिन हमने हमेशा आचरण की निंदा की हमने सोच के निंदा नहीं की। हमने आचरण को बदलना चाहा लेकिन श्रद्धा को बदलना नहीं चाहा। लेकिन श्रद्धा अगर बदले तो आचरण अपने आप बदलेगा। जिसके भीतर यह मान्यता बैठ गई कि मुझे तो कोई समझता नहीं है तो फिर उसे बदलना और मुश्किल हो जाता है। इसलिए हमें यह देखना चाहिए कि हमारे आसपास जो भी है उनके अतीत क्या है तो वर्तमान को समझ सकते हैं। आज लोगों को मन में गलत गलत श्रद्धा बैठ गई है। हम जिसको जैसा मान लेते हैं हमें उसमें वही नजर आता है। अगर किसी के बारे में हम बुरा सोच लेते तो हम उसमें बुराई ही देखते हैं। अच्छा सोचेंगे तो अच्छा दिखाई देगा । उन्होंने मां बेटी के उदाहरण के जरिए बखूबी समझाया की कैसे बच्चों में भी भेदभाव हो जाता है। सम्यक दर्शन का मतलब सही मान्यता है।अब हमें क्या करना है यह सोचने वाली बात है। लोगों को दुख मिलता नहीं लोग दुख खरीद रहे हैं। पर उन्हें पता नहीं है। हमें बच्चों को लेकर प्रयास करना चाहिए कि उनकी सोच कैसे बदले। उन्हें साबित करना है कि संसार में अगर कोई सबसे ज्यादा चाहता है तो उनके माता-पिता ही हैं। आपको जो परिवार मिला है आपने चुना। उन्होंने जीवन में सुखी रहने के उपाय सुझाए ताकि हमें अपने श्रद्धाओं को सही करना होगा। जो भी हम कर रहे हैं वह श्रद्धा विश्वास से आ रहा है। धारणा बदलना है। हम प्रवचन तो सुन लेते हैं लेकिन अपने धारणा और विश्वास बदलने के लिए कुछ नहीं करते। अपने आप से पूछे कि मैं ऐसा कर क्यों रहा हूं? निश्चिंत रहिए परेशानी आती जाती रहती है। तो वह कोई परेशानी नहीं लगेगी। अपना नजरिया बदल कर देखिए नजारे बदल जाएंगे। उन्होंने यह उपाय बताएं कि जब भी किसी से शिकायत करनी हो तो यह सोच लेना है कि उसने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया। अपने आप को समय दीजिए। आप स्वयं में ही उलझेहैं। पूरे परिवार को कभी खुश नहीं कर पाते। कभी-कभी सामने वाले की इच्छा के अनुरूप भी व्यवहार करें ।
एक बार अपने आसपास के लोगों को देखकर समझें कि ऐसा व्यक्ति क्यों कर रहा है फिर आपको खुशियां मिलने शुरू होगी। हम अपने धारणा मान्यता पर काम नहीं कर पा रहे हैं।
खुद को बदलने की शुरुआत बचपन के बारे में सोच कर करें।हमें अपने श्रद्धा,धारणा को धीरे-धीरे बदलना है। विचार करते हुए शुरुआत पहले अपना बचपन देखें। उसके बारे में निष्पक्ष सोचिए। अपनी श्रद्धा से हटकर देखना आसान काम नहीं है। आपके संपर्क में जो लोग आए हैं आपकी सोच के हिसाब से आया है या नहीं, मेरी श्रद्धा अवधारणा के हिसाब से मुझे वातावरण मिल रहा है कि नहीं? तो समझ में आएगा कि आपके साथ बुरा व्यवहार क्यों हो रहा है। आपकी सोच के कारण यह सब हो रहा है। जिसके प्रति गलत सोच आएगी हम या वह हमसे दूर होते जाएंगे और यही वजह है कि हम जीवन में अच्छे लोगों से दूर रहते हैं। अपने धारणा पर अब दूष्टि डालने की कोशिश करिए सब बदल जाएगा।प्रवचन प्रतिदिन प्रातः 8.30से 9.30 बजे तक जारी है।